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रोज़-रोज़ ग़म की मौज होने लगी, आंखों से आंसु भ

रोज़-रोज़  ग़म की  मौज होने लगी,
आंखों से  आंसु  भी  क़तरा-क़तरा,
बहते-बहते  बहने से  कतराने लगी,
पथराई आंखों में कुछ जम सी गई,
ज़हीन  आंसुओं  की पाक कतरे है,
इन्हें  जमकर फ़िर पिघल जाने का,
वो  बेसबरी  से इंतज़ार कर रही है,
इंतज़ार  उस बैरी उम्र की आखिरी,
तेज़  बरसात  के  पाक  कतरों का,
जिनमें बड़ी शिद्दत से  बज़्म होकर,
क़तरे-क़तरे के समुंदर में खो जाए,
जहां नही ग़म खोने और पाने  का।

©अदनासा-
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