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न ज्ञान के अभिमान से... न ध्यानी के मान से... तुम

न ज्ञान के अभिमान से...
न ध्यानी के मान से...
तुम तो रास रचईया हो कान्हा...रिझाना होगा तुम्हें...
  नृत्य/संगीत /प्रेमगान से....
पुकारती हूँ मैं तुम्हें दिलो जान से....

तुम हो चितचोर मेरे...
मेरी आत्मा को भी आलोकित कर दो....
अपनी स्नेहिल मधुर मुस्कान से।

तुम प्रियतम मेरे.... गुरु तुम्हीं हो
अर्जुन की तरह मेरे प्राणों को भी....
अभिसिंचित कर दो गीता के महा ज्ञान से।

न राधा सा प्रेम है मुझमें ना मीरा सी तपस्या है....
मैं अकिंचन तेरे द्वार पड़ी कृष्णा
एक नज़र डाल दो मुझ पर.... जी उठूँ मैं शान से।

न कर्मकांड के भंवरजाल से... न दिखावे के आडम्बरों से...
बहुत सरल हैं द्वारकाधीश.... मिल जाते हैं भक्तिमय गुणगान से....।

तुम्हें पाना नहीं मुझे... तुममें खो जाना है....
चाहे राधारानी का चरणरज ले दिव्य प्रेम से या फिर मौन ध्यान से।

कोयला से कंचन होने लगी मैं....
आत्मिक सौंदर्य से खिलने लगा मेरा तन/मन सांवरे...
अनाहद के अमृतस्वर पे....
हो रहा मेरे प्राणों का स्वशासन...
तुम्हारे प्रेमगीतों के उन्मान से।

बस जाओ मेरे मनमंदिर में मनमोहना....
दे दो मेरी धड़कनों को अपनी करुणा का स्पन्दन....
मेरा रोम रोम दे रहा तुम्हें नेह निमंत्रण....
सार्थक कर दो जीवन मेरा अपने करुण अहसान से।

(स्वरचित:अनामिका अर्श)

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