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लगे हैं लोग बहुत से हमें गिराने में। हमारे

लगे  हैं  लोग  बहुत  से  हमें  गिराने  में।
हमारे  बढ़ते  हुए  क़दमों  को  घटाने  में।
सुना है रच रहे हैं साजिशें सभी मिलकर-
ख़िलाफ़  मेरे  लगे  हैं  हवा  बनाने  में।

न जाने क्या उन्हें मिल जाएगा सताने में।
बिना  वजह  की  नई  रंजिशें  निभाने  में।
कहीं ऐसा न हो कि ख़ुद की हस्ती मिट जाए-
हमारी  बढ़ती  हुई  साख़  को  मिटाने  में।

बड़े  उस्ताद  जो   हैं  चिंगारियाँ  लगाने में।
मज़ा बहुत जिन्हें आता है घर जलाने में।
संभल कर देखना ओ आग लगाने वाले-
ख़ुदी  के  हाथ  जला  बैठो  न  जलाने में।

फ़साना मुख़्तसर इतना ही है फ़साने में।
मिलेगा कुछ भी नहीं हमको आज़माने में।
मिटा सके मेरी हस्ती को जो कभी जड़ से-
हुआ अबतक नहीं पैदा कोई  ज़माने में।

रिपुदमन झा 'पिनाकी'
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक

©Ripudaman Jha Pinaki #चेतावनी
लगे  हैं  लोग  बहुत  से  हमें  गिराने  में।
हमारे  बढ़ते  हुए  क़दमों  को  घटाने  में।
सुना है रच रहे हैं साजिशें सभी मिलकर-
ख़िलाफ़  मेरे  लगे  हैं  हवा  बनाने  में।

न जाने क्या उन्हें मिल जाएगा सताने में।
बिना  वजह  की  नई  रंजिशें  निभाने  में।
कहीं ऐसा न हो कि ख़ुद की हस्ती मिट जाए-
हमारी  बढ़ती  हुई  साख़  को  मिटाने  में।

बड़े  उस्ताद  जो   हैं  चिंगारियाँ  लगाने में।
मज़ा बहुत जिन्हें आता है घर जलाने में।
संभल कर देखना ओ आग लगाने वाले-
ख़ुदी  के  हाथ  जला  बैठो  न  जलाने में।

फ़साना मुख़्तसर इतना ही है फ़साने में।
मिलेगा कुछ भी नहीं हमको आज़माने में।
मिटा सके मेरी हस्ती को जो कभी जड़ से-
हुआ अबतक नहीं पैदा कोई  ज़माने में।

रिपुदमन झा 'पिनाकी'
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक

©Ripudaman Jha Pinaki #चेतावनी