फ़र्क घर लौटते आज मैंने, रस्ते पर नज़र फेरी । सोच रहा था क्या, होता होगा भरी दुपहरी ? एक चौराहे पर मुन्ना, बना रहा साबुन के बुलबुले । दूजी तरफ चचा, बेच रहे थे चुरमुरे । एक भिखारी फुटपाथ पर, गा रहा था गीत । सोचा इन सब का शायद, मुश्किल होगा अतीत । या फिर मैं ही थोड़ा, स्वार्थी हूँ शायद । मुझे क्या पता अन्न की, क्या होती कवायद । एक कार में बैठा, मैं इन पर टिप्पणी करता हूँ । मैं खुद धूल और धूप में, निकलने से डरता हूँ । जो बाहर हैं वो अंदर, बस शीशों से ही देख पाते हैं । और अंदर के लोग, बाहर निकलने से कतराते हैं । हमारे सपनो में बस, इतना ही फर्क है । उन्हें आगे बढ़ने की चाह है, हमें पीछे हो जाने का डर है । आसान सा तर्क है, बस थोड़ा फ़र्क है । If the text is too small please read below - फ़र्क घर लौटते आज मैंने, रस्ते पर नज़र फेरी । सोच रहा था क्या, होता होगा भरी दुपहरी ?