दिल की बात दिल में रखकर, दिल को इतना बोझिल बनाकर, तुम कैसे जी लेते हो? दिक्कत तो तुम्हें भी होती होगी, इस बोझिल दिल के साथ जीने में, फिर क्यों अकेले इतना बोझ सहते हो? अपने जज्बातों को सबसे छुपाकर, दिल में ही इन्हें मारकर, तुम क्यों खुद को कातिल बनाते हो? कोई पूछे जब तुमसे दिल की बात, तो उससे भी किनारा करते हो, तुम क्यों नहीं किसी पर ऐतबार करते हो? किसी शख्स से न कह कर, अपने अल्फाज़ को स्याही से बया करते हो, तुम क्यों कागज़ से बाते करते हो?