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ज़रा सुनो ! मुझे रुकी हुई घड़ियाँ नहीं पसंद...

ज़रा सुनो !
मुझे
रुकी हुई घड़ियाँ 
नहीं पसंद...
                                                                                  तुम भी तो मेरा 
                                                                                  समय ही हो...

                                                                                  तुम्हारा                                                                                  
                                                                                  रुक जाना 
                                                                                  कैसे भा सकता 
                                                                                  है मुझे...

                                                                                  तुम्हें 
                                                                                  दूर से हर पहर
                                                                                  गतिशील ही 
                                                                                  देखना चाहता 
                                                                                  हूँ मैं...

                घड़ी में तो Duracell का सेल डाल कर मैं घड़ी को चला दूंगा और कर दूंगा इसका समय ठीक...पर तुम अगर ठहर गयीं तो तुम्हें कैसे चलाऊँगा...तुम्हारा मुझ लल्लूदसहेरी की तरह रुक जाना सही नहीं...तुम तो आगे बढ़ने के लिए ही हो, उड़ने के लिए ही हो...रात हो तो जुगनू की तरह...दिन हो तो तितली की तरह...वैसे तुम्हें सच बताऊँ तुम दिन या रात की मोहताज भी नहीं...जब दिन या रात कुछ भी नहीं होगा तब भी तुम समय की तरह आगे बढ़ोगी, समय की तरह उड़ोगी ...

तुम्हारा इस तरह मुझे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाना मुझे बहोत आकर्षक लगता है...अनंत उदासियाँ दे देता है...बहोत हर्ष देता है...जैसे जब कोई बच्चा किसी तितली को किसी फूल पर बैठे देखता है तो वो उसे बहोत भाती है पर जब वो देखता है उसे उड़ते हुए तो और ज्यादा खुश होता है...पर वो बहोत उदास हो जाता है जब वो तितली उड़ते हुए ओझल हो जाती है...तब वो रोज़ जा जा कर देखता है उसी फूल को जहाँ उसने उसे पहली दफा बैठे देखा था...

मैं भी तुम्हें ढूंढता हूँ तुम्हारी उसी पुरानी जगह पर...तुम्हारी उसी कुर्सी पर जहाँ तुम बैठा करती थी...उदास हो जाता हूँ थोड़ी देर के लिए...फिर तुम्हें सोचकर खुश हो जाता हूँ किसी नयी कुर्सी पर बैठे हुए स्मृत कर जहाँ मैंने खुद को जाने की इज़ाज़त नहीं दे रखी है...मैं फिर से तुम्हें ठहरने तो ना दूंगा ना...

मैं कोई बच्चा थोड़े ही हूँ, मुझे पता है कि ठहर जाने से आभा झर जाती है चाहे वो तितली हो या तुम हो या मैं...
ज़रा सुनो !
मुझे
रुकी हुई घड़ियाँ 
नहीं पसंद...
                                                                                  तुम भी तो मेरा 
                                                                                  समय ही हो...

                                                                                  तुम्हारा                                                                                  
                                                                                  रुक जाना 
                                                                                  कैसे भा सकता 
                                                                                  है मुझे...

                                                                                  तुम्हें 
                                                                                  दूर से हर पहर
                                                                                  गतिशील ही 
                                                                                  देखना चाहता 
                                                                                  हूँ मैं...

                घड़ी में तो Duracell का सेल डाल कर मैं घड़ी को चला दूंगा और कर दूंगा इसका समय ठीक...पर तुम अगर ठहर गयीं तो तुम्हें कैसे चलाऊँगा...तुम्हारा मुझ लल्लूदसहेरी की तरह रुक जाना सही नहीं...तुम तो आगे बढ़ने के लिए ही हो, उड़ने के लिए ही हो...रात हो तो जुगनू की तरह...दिन हो तो तितली की तरह...वैसे तुम्हें सच बताऊँ तुम दिन या रात की मोहताज भी नहीं...जब दिन या रात कुछ भी नहीं होगा तब भी तुम समय की तरह आगे बढ़ोगी, समय की तरह उड़ोगी ...

तुम्हारा इस तरह मुझे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाना मुझे बहोत आकर्षक लगता है...अनंत उदासियाँ दे देता है...बहोत हर्ष देता है...जैसे जब कोई बच्चा किसी तितली को किसी फूल पर बैठे देखता है तो वो उसे बहोत भाती है पर जब वो देखता है उसे उड़ते हुए तो और ज्यादा खुश होता है...पर वो बहोत उदास हो जाता है जब वो तितली उड़ते हुए ओझल हो जाती है...तब वो रोज़ जा जा कर देखता है उसी फूल को जहाँ उसने उसे पहली दफा बैठे देखा था...

मैं भी तुम्हें ढूंढता हूँ तुम्हारी उसी पुरानी जगह पर...तुम्हारी उसी कुर्सी पर जहाँ तुम बैठा करती थी...उदास हो जाता हूँ थोड़ी देर के लिए...फिर तुम्हें सोचकर खुश हो जाता हूँ किसी नयी कुर्सी पर बैठे हुए स्मृत कर जहाँ मैंने खुद को जाने की इज़ाज़त नहीं दे रखी है...मैं फिर से तुम्हें ठहरने तो ना दूंगा ना...

मैं कोई बच्चा थोड़े ही हूँ, मुझे पता है कि ठहर जाने से आभा झर जाती है चाहे वो तितली हो या तुम हो या मैं...