बँटवारा कल तक जो घर था आज वो नज़ारा हो रहा है जिस चूल्हे पर रोटीयाँ सेकती थी माँ आज उस चूल्हे का बँटवारा हो रहा है लोगो ने समझाया उसे पर भाई अपने हठ पर अड़ा रहा घर अंदर ही अंदर टूट रहा था और मकान बेशर्मो की तरह खड़ा रहा बचपन में जो हाथ पैर छूते थे आज वो हाथ पिता के गिरेबान पर है शायद अब तो हालात किसी के रोके न रुकेगा क्योंकि कि हालात पहले से ही अपने अंज़ाम पर है कल तक जो प्रेम भाव से रहते थे आज लकीर- ए-दरार किसने खिचा है माँ सिक्के बाँधा करती थी अपने पल्लू से आज वो पल्लू उन्ही के आंसू से क्यु भीगा है पिता ने मुश्किल से जज्बातों को काबू किया पर माँ आँखो से रो गई अब किसे बतलाती दुख अपना वो इसलिए वो रोते रोते सो गई #बँटवारा #माँ #पिता