एक प्रश्न रह-रह कर उठता, है मन में मेरे भगवान्, हो जाता है हृदय व्यथित और छा जाता है अज्ञान, द्रवित हो रहे नेत्र विरह में, हाय मानस क्षुब्द अजान, जीवन की इस मृगतृष्णा में, बंधा हुआ हर इन्सान। मात, पिता और भ्रात-सखा, सब साथ छोड़ते जाएँगे, जीवन भर जो साथ चले थे, तब कहाँ उन्हें हम पाएँगे, पतझड़ के वृक्षों की भाँति, बस जड़वत हम रह जाएँगे,