|| श्री हरि: ||
12 - अर्थार्थी
'बेशर्म कहीं का' सरदार की आखें गुस्से से लाल हो गयी। फड़कते ओठों से उन्होंने डांटा। 'पासमें तो महज एक बूढा ऊँट है ओर हिम्मत इतनी।'
'कसूर माफ हो।' अरब अपमान सह नहीं सकता। अगर उसे रोशन का खयाल न होता तो तेग बाहर चमकती होती। लेकिन वह समझ नहीं सका था कि उसने गलती क्या की है। आखीर वह काना-कुबड़ा नही है। बदशकल भी नहीं है ओर कमजोर भी नही है। अरब न तो रोजगार करता और न खेती। किसी नखलिस्तान की चढ़ाई में वह भी दुशमन से आधे दर्जन ऊँट और बडा-सा तम्बू छीन सकता है। सरदार के ऊँट और उसका तम्बू भी लूट का ही है।
'जैसे कारूँ का खजाना इनके वालिद ने इन्हीं के लिए रख छोड़ा हो। सरदार की तेज जबान पूरे कबीले में मशहूर है। 'कल की सुबह तुम्हें मेरे कबीले में नहीं मिलना चाहिए। तुम जानते हो कि मैं अपने उसूल का पक्का हूँ और दुबारा कसूर माफ की दरख्वास्त कतई कबूल नहीं होगी। मुंह काला करो।' बूढ़ा बड़े जोर से चिल्ला रहा था। उसकी आदत से वाकिफ होने की वजह से किसी ने ख्याल नहीं किया और कोई नहीं आया। #Books