वन उपवन खिलने लगे, हँसी सुघड़ ये भोर। पँछी के कलरव करे, कोलाहल हर ओर।। प्राणवायु बहने लगी, मंद मंद मुस्काए। पुष्प वल्लरी की महक, तन मन को महकाए।। हल काँधे पर डालकर, कृषि को चला किसान। मधुर गले से छेड़ती, कोयल मीठी तान।। बछड़े गउएं मेमने, करते मधुर पुकार। सुरमयी से सजने लगे, ये सुंदर संसार।। मन को मोहे दृश्य यह, सुख पावे दोउ नैन। प्रकृति की शोभा बढ़ा, मिलते हैं दिन रैन।। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©Ripudaman Jha Pinaki #भोर