ठहर जा मन ठहर जा!! आ कहीं दूर चलें,,,, अंधेरे के छोर तक। कैसे समेटे बैठी हूँ मैं,,,, तेरी बेचैनियों को अपने आगोश में। कैसे कहूँ बीतती है ये रैना मेरी,,,, सरफरोश में!! कैसे कहूँ कि उलझनों का ठिकाना,,,, बड़ा पुराना हो चला है। कैसे कहूँ कि तन्हाईयों से रिश्ता,,,, पुराना हो चला है। सुन! मन,,,, ना सुन सकेगा कोई तेरी,,,, उद्वेगना को। ना ख़त्म होगी तेरी,,,, लड़ाई खुद से। ना थमेगा सिलसिला,,,, तेरे सवालों का। हाँ मुस्कुराते हैं मेरे होंठ सदा,,,, पर सुन! मन,,,, मुस्कुराहट ही तो मुकम्मल खुशी नहीं होती। पर कौन समझे हैं यहाँ,,,, अन्तर्मन की वेदना। इसलिए ठहर जा,,,, आ कहीं दूर चलें,,, अंधेरे के छोर तक।।। ©Varsha Singh(शिल्पी शहडोली) #मन #SAD