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हमारे हाथ में है भी क्या! हम तो प्रकृति के हाथों क

हमारे हाथ में है भी क्या!
हम तो प्रकृति के हाथों कठपुतली हैं।
सूर्य ही सृष्टि का प्रथम षोडशी पुरुष है,
जगत का पिता है।
अमृत और मृत्यु लोक दोनों को प्रभावित करता है।
प्रकृति मां है।
सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणी सूर्य से उत्पन्न होते हैं।
सूर्य किरणों द्वारा नीचे उतरते हैं। बादल बनते हैं।
वर्षा के जल के साथ पृथ्वी की
अग्नि में आहूत होते हैं।
औषधि-वनस्पतियों का रूप लेते हैं। "कौनसा स्कूल" --02
🌷😊☕☕🌷☕🙏😊🌷
:
यह उनका प्रथम स्थूल रूप में अवतरण होता है। यही प्राणियों का अन्न होता है। अन्न जठराग्नि में आहूत होता है। शरीर के सप्तधातुओं का निर्माण करते हुए शुक्र में समाहित हो जाता है। पांचवें स्तर पर माता के गर्भ में शरीर धारण करता है। अर्थात् माता-पिता भी बादल-बिजली की तरह एक पड़ाव ही होते हैं, जीव को आगे प्रकट करने का-स्थूल शरीर देकर। जीव को पैदा नहीं करते। जीव की अपनी यात्रा है, अपने कर्मों के अनुसार। उन्हीं फलों को भोगने के लिए समाज के बीच में विभिन्न सम्बन्ध स्थापित करने आता है। क्या इस जीव को हम शिक्षित कर सकते हैं? हमारी शिक्षा पद्धति तो जीव तक पहुंच भी नहीं सकती। इसीलिए तो मानव शरीर में पशुता बढ़ती जा रही है। व्यक्ति के लिए शरीर-मन-बुद्धि जीने के साधन हैं। अत: शिक्षा का लक्ष्य इन साधनों का उपयोग करने की क्षमता पैदा करना होना चाहिए। नश्वर के बजाए शाश्वत सृष्टि को शिक्षित करने की मूल आवश्यकता है। इसके बिना मानव शरीर पशुवत एवं अनियंत्रित ही व्यवहार करेगा।
:
इसके लिए शिक्षा को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ेगा। कैरियर की शिक्षा तो व्यक्ति को पेट से ही बांधेगी। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए नहीं जी सकता। परिवार तक सिमटकर ही चला जाएगा। शिक्षा को प्राकृतिक नियमों से जोड़ा जाए। शरीर पंचमहाभूतों से बनता है, तो इनके महत्व एवं स्वरूपों को स्पष्ट करना चाहिए। तब पर्यावरण की समस्या भी सुलझ जाएगी। बीज को पेड़ बनना सिखाया जाए, ताकि वह समाज के काम आ सके। कुछ समाज को लौटा सके। उसे अपने अस्तित्व का मोह छोडक़र ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के बोध के साथ जीना सिखाया जाना चाहिए।
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#पंछी
हमारे हाथ में है भी क्या!
हम तो प्रकृति के हाथों कठपुतली हैं।
सूर्य ही सृष्टि का प्रथम षोडशी पुरुष है,
जगत का पिता है।
अमृत और मृत्यु लोक दोनों को प्रभावित करता है।
प्रकृति मां है।
सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणी सूर्य से उत्पन्न होते हैं।
सूर्य किरणों द्वारा नीचे उतरते हैं। बादल बनते हैं।
वर्षा के जल के साथ पृथ्वी की
अग्नि में आहूत होते हैं।
औषधि-वनस्पतियों का रूप लेते हैं। "कौनसा स्कूल" --02
🌷😊☕☕🌷☕🙏😊🌷
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यह उनका प्रथम स्थूल रूप में अवतरण होता है। यही प्राणियों का अन्न होता है। अन्न जठराग्नि में आहूत होता है। शरीर के सप्तधातुओं का निर्माण करते हुए शुक्र में समाहित हो जाता है। पांचवें स्तर पर माता के गर्भ में शरीर धारण करता है। अर्थात् माता-पिता भी बादल-बिजली की तरह एक पड़ाव ही होते हैं, जीव को आगे प्रकट करने का-स्थूल शरीर देकर। जीव को पैदा नहीं करते। जीव की अपनी यात्रा है, अपने कर्मों के अनुसार। उन्हीं फलों को भोगने के लिए समाज के बीच में विभिन्न सम्बन्ध स्थापित करने आता है। क्या इस जीव को हम शिक्षित कर सकते हैं? हमारी शिक्षा पद्धति तो जीव तक पहुंच भी नहीं सकती। इसीलिए तो मानव शरीर में पशुता बढ़ती जा रही है। व्यक्ति के लिए शरीर-मन-बुद्धि जीने के साधन हैं। अत: शिक्षा का लक्ष्य इन साधनों का उपयोग करने की क्षमता पैदा करना होना चाहिए। नश्वर के बजाए शाश्वत सृष्टि को शिक्षित करने की मूल आवश्यकता है। इसके बिना मानव शरीर पशुवत एवं अनियंत्रित ही व्यवहार करेगा।
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इसके लिए शिक्षा को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ेगा। कैरियर की शिक्षा तो व्यक्ति को पेट से ही बांधेगी। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए नहीं जी सकता। परिवार तक सिमटकर ही चला जाएगा। शिक्षा को प्राकृतिक नियमों से जोड़ा जाए। शरीर पंचमहाभूतों से बनता है, तो इनके महत्व एवं स्वरूपों को स्पष्ट करना चाहिए। तब पर्यावरण की समस्या भी सुलझ जाएगी। बीज को पेड़ बनना सिखाया जाए, ताकि वह समाज के काम आ सके। कुछ समाज को लौटा सके। उसे अपने अस्तित्व का मोह छोडक़र ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के बोध के साथ जीना सिखाया जाना चाहिए।
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#पंछी