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ज़िंदगी की शाम सन्नाटा पिछली रात को रोता है शहर में

ज़िंदगी की शाम सन्नाटा पिछली रात को रोता है शहर में 
क्यों रोज़-रोज़ हादिसा होता है शहर में 

आएगा इन्क़िलाब यहाँ कैसे तुम कहो 
 सोचों का कुम्करण अभी सोता है शहर में 

बारूद की सुरंग वो बिछाकर चला गया 
हाथों से अपने आग जो ढोता है शहर में 

 नाज़ुक समझ रहे हैं जिसे फूल-सा सभी 
 नश्तर वो एक शख़्स चुबोता है शहर में 

 दरिया को पार अब भला कैसे करेंगे हम 
'माँझी' ही लाके नाव डुबोता है शहर में  
                                          -देवेन्द्र माँझी 

शब्दार्थ--1. कुम्करण=कुम्भकरण। 

('क्यों सभी ख़ामोश हैं' से) #Zindagi
ज़िंदगी की शाम सन्नाटा पिछली रात को रोता है शहर में 
क्यों रोज़-रोज़ हादिसा होता है शहर में 

आएगा इन्क़िलाब यहाँ कैसे तुम कहो 
 सोचों का कुम्करण अभी सोता है शहर में 

बारूद की सुरंग वो बिछाकर चला गया 
हाथों से अपने आग जो ढोता है शहर में 

 नाज़ुक समझ रहे हैं जिसे फूल-सा सभी 
 नश्तर वो एक शख़्स चुबोता है शहर में 

 दरिया को पार अब भला कैसे करेंगे हम 
'माँझी' ही लाके नाव डुबोता है शहर में  
                                          -देवेन्द्र माँझी 

शब्दार्थ--1. कुम्करण=कुम्भकरण। 

('क्यों सभी ख़ामोश हैं' से) #Zindagi
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