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हे समस्त वृक्षों हे कानन हमें क्षमा कर दो, हम मानव

हे समस्त वृक्षों हे कानन हमें क्षमा कर दो,
हम मानव तुम्हारे पतन का कारण बन चुके है,
हम विकसित मानव चरम विकास में मग्न है
अब हम सुंदर परिधान धारक है नग्न नही,
अपितु चरम आधुनिक काल के अंतर्गत,
हमें हमारे हर स्थान को सुविधा एवं सरलता में बदलना है,
तुम्हारी दुविधा एवं पीड़ा से हमारा नाता नही है,
हमारी चिंताएं अधिक है हमें स्वयं का अधिकार चाहिए,
तुम्हें अधिकार नही है क्योंकि तुम बोल नही पाते,
वैसे हमारी स्वयं की सुनवाई ही कम हो रही है,
तो तुम्हारी सुनवाई भला कौन कैसे करे ?
हमारा स्वयं से नाता न्युन एवं यंत्र से अधिक है,
भला जीव जंतुओं की चिंता एवं चिंतन संभव कैसे हो ?
हम विकसित विकासशील मानव पुनः क्षमा प्रार्थी है,
माना की हम एकदा विद्यालय में पर्यावरण के विद्यार्थी भी थे,
हम सुशिक्षित सुसभ्य केवल हृदय से सॉरी ही कह सकते है,
हमें केवल और केवल सुविधाजनक विकास चाहिए,
स्वयं के ह्रास हेतु अत: असुविधा हेतु खेद प्रकट करते है,
हमने तुम्हारे पतन में स्वयं का उत्थान खोज लिया है।

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