अपरिपक्व रहा हूं उस हर मोड़ पर मैं ठोकर खाने को जहां पत्थर नहीं मिला। आते जाते रहे कई शख्स मेरी महफिल में यहां अंजाना ही रहा वो, गम जिससे अपना ना मिला। मन में उठती, गिरती, छोटी, बड़ी लहरें बहुत उलझा रहा इसमें जब तक, कोई किनारा ना मिला। मस्तिष्क मेरा कच्ची मिट्टी का एक खिलौना सही सांचे में नहीं ढाला तो, बेढंगा ही मिला। अपरिपक्व रहा हूं उस हर मोड़ पर मैं ठोकर खाने को जहां पत्थर नहीं मिला। आते जाते रहे कई शख्स मेरी महफिल में यहां अंजाना ही रहा वो, गम जिससे अपना ना मिला। मन में उठती, गिरती, छोटी, बड़ी लहरें बहुत उलझा रहा इसमें जब तक, कोई किनारा ना मिला।