शीर्षक: डाकिया खो गए या डाक इन आधुनिक गलियारों में वो प्राचीन के कमरे बंद हो गए, हाँ कुछ नयापन भी सीखा हमने मगर डाकिया इन गलियारों में ही खो गए। के बेजोड़ मशक्कत से एक ख़त पहुंचाया जाता था, हर हर्फ शिकायत लिखते थे और सुकून भी घोला जाता था। पहले जो शरमाते थे अब ख़ुद में ही कतराते है, वक़्त दिया जाता था ख़त में हर पल जो अब वक़्त से वक़्त चुराते है। हाँ पूरी तरह से ख़त्म नहीं मगर सिलसिले कम हो गए, डाकिया आज भी ताक में है के डाक कहीं से तो आए। जैसे पहले बेटा अब्बा को ख़त लिखता था, आज उनकी झुर्रियां बस वक़्त का तकाज़ा देखती है, अम्मा भी इंतजार में पलकें बिछाए रहतीं थीं ख़त आने से पहले मुहल्ले भर को बताती थीं, रक्षा बंधन एक पर्व जो ख़त से ही शरुआत हुई आज वृद्धा आश्रम में भी नज़रे चुराएं थोड़ा तो इंतजार करती है, के मन ही मन आज भी वो उस डाकिए को तलाश करती हैं। वो डाकिया भी सोचता था इन खतों में अब मेरी बारी आएगी,वो बेहद खुश होता था, ना भी पाता अपनी तो हेरा फेरी कर मंद ही मंद मुस्काता था। अब खतों को गिनना कहाँ पन्नों में सन्नाटा है, हर हाथ मोबाइल पकड़े, कलमों से टूटा थोड़ा नाता है। ©- नकहत प्रवीण ज़ेबा #ChineseAppsBan #post #postman #Envelope #Nojoto #poem