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गुनाह "मैं" और मेरा मुज़रिम एक रोज़ मिले कहीं , मैं

गुनाह  "मैं" और मेरा मुज़रिम एक रोज़ मिले कहीं ,
मैं खड़ा था बहुत से सवालों के साथ ।
सच और झूठ के फ़ासलो को जानने के लिए ,
बहुत से अरमानों के साथ ।

बड़ी ही तैश में था ,की पता नही क्या कर बैठूं ,
उस से बदला लूँ अपने ज़ख्मो का ?
या चुपचाप वही बैठूं ।

मैं समझूँ उसकी बातों को, 
उस के मनसूबों को ।
कि आख़िर वजह क्या थी मुझे सताने की ,
क्या उसने कसम खायी थी मुझे मिटाने की ।

समय बीता मगर हम वही खामोश यूँ ही थे ,
थी प्रश्नों की बड़ी जमघट मग़र बेहोश यूँ ही थे ।

"अचानक एक पत्थर से मेरा शीशा वही टूटा ,
उसी क्षण से मेरा मुज़रिम भी मेरे हाथ से छूटा ।"
गुनाह  "मैं" और मेरा मुज़रिम एक रोज़ मिले कहीं ,
मैं खड़ा था बहुत से सवालों के साथ ।
सच और झूठ के फ़ासलो को जानने के लिए ,
बहुत से अरमानों के साथ ।

बड़ी ही तैश में था ,की पता नही क्या कर बैठूं ,
उस से बदला लूँ अपने ज़ख्मो का ?
या चुपचाप वही बैठूं ।

मैं समझूँ उसकी बातों को, 
उस के मनसूबों को ।
कि आख़िर वजह क्या थी मुझे सताने की ,
क्या उसने कसम खायी थी मुझे मिटाने की ।

समय बीता मगर हम वही खामोश यूँ ही थे ,
थी प्रश्नों की बड़ी जमघट मग़र बेहोश यूँ ही थे ।

"अचानक एक पत्थर से मेरा शीशा वही टूटा ,
उसी क्षण से मेरा मुज़रिम भी मेरे हाथ से छूटा ।"
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