आदत कहां थी अकेले कमरों की, ए सी, टी वी, वक्त ही कहां था, जिंदगी जब दोड़ थी, सूकुन, से कभी दोस्ती हुई ही नहीं, जंग जब आसमां से थी, शोर था चारों ओर, ख्वाहिशें जब बेइंतेहा थी, बाजार के खिलौने, कॉपी किताबें, लैपटॉप,स्कूल की फीस,कपड़े, जूते, होटल का खाना, घूमने जाने की जिद, आदत कहां थी अकेले कमरों की, जिंदगी हर पल एक जलता धूंआ थी, दुआओं की भला जब किसी को जरूरत ही कहां थी, कौन जानता था, दिए की लौ एक दिन फड़फड़ाएगी, यादों का हर पन्ना फुर्सत में काम आएगा, शोर खामोशी का होगा चारों तरफ, जिंदगी बंद अकेले कमरों में गुम हो जाएगी, आदत कहां थी अकेले कमरों की।। ✍ सुधीर भटनागर