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बनते बनते बिगड़ गई है बहुत सी बातें, रो रो के गुजर

बनते बनते बिगड़ गई है बहुत सी बातें,
रो रो के गुजरी है यूंही काफी राते।
लोग आके चले जाते हैं,
क्यों उनके हाथों हम ही मले जाते है।
ना हम किसी को सताते,
ना ही दोबारा किसी पे अपना हक जताते।
दोगले लोग अपने साथ सपने है कई लाते,
आखिर में वही हमको चुन चुन के है खाते।
अजनबी से हो गए है अपने कुछ सगे नाते,
बनते बनते बिगड़ गई है बहुत सी बातें।
क्या ही कहे किसी से ,
कसूर शायद कही हमारा ही तो है,
अलग हुए है यहा सबसे,
हर समुंदर में नमक खारा ही तो है।
कभी नरम तो कभी पहाड़ सी सख़्त,
कैसी ये जिंदगी अब हो गई कमबख्त।
वो बचपन के किए खुद से वादे भुलाए ना जाते,
अब तो कई बार ठीक से खा भी नी पाते।
मन में यूंही कई बुरे ख्याल है आते,
रो रो के गुजरी है यूंही काफी राते,
बनते बनते बिगड़ गई है काफी बातें।

©Kusu Simran
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