अधूरा बचपन जिन गलियों से गुजरते है हम, हमेशा नजर आती है उनकी आँखे नम । न जानते वो बचपन वाला प्यार, क्या होते है अपने यार । न जानते वो माँ की लोरी, जन्म से लद जाती कचरे की बोरी । जानते हैं वो सिर्फ कचरा बीनना, क्या होता है अपनो से मिलना । कब हो जाता है उदय-अस्त सुरज, करते हैं पूरे दिन रोटी की अरज । न हैं उन्हे कचरा बीनने मे आलस, रहती हैं हमेशा रोटी की लालच । क्या होता हैं उनके लिए सम्मान को पाना, जीवनभर रोते बेचारे पेट के लिए रोना । न सोचते वो बनना महलो के नवाब, सोचते है बस आज पेट भरने के ख्वाब । आँखों मे भरे होते हैं उनके सपने, किसी के तो वो भी होंगे अपने । देवासी जगदीश #अधूरा_बचपन