मुझे अफ़सोस है मैं ज़िंदगी से लड़ नहीं पाया। अकेला पड़ गया था मैं किसी से लड़ नहीं पाया। , मुझे मालूम था दो चार दिन तक मौत टलती पर। मगर मैं इक अदद छोटी घड़ी से लड़ नहीं पाया।। , कोई भी राह मंज़िल तक मुझे लेकर नहीं आई। इसी वहशत के मारे मैं ख़ुदी से लड़ नहीं पाया।। , बहाने बन तो सकते है समंदर के किनारे हूँ। लेकिन मैं सच में अपनी तिश्नगी से लड़ नहीं पाया।। , रसोई घर नहीं चलती है लफ़्ज़ों के मरासिम से। मैं भूका था तो खाली तश्तरी से लड़ नहीं पाया।। , ग़ज़ल को सींचता हूँ रोज़ अपना मैं लहूँ देकर। लेकिन देखो तो मैं भी शाइरी से लड़ नहीं पाया।। , किसी से क्या कहूँ ऐसा अंधेरा ज़िंदगी में था। मैं बाहर दिख रही इक रौशनी से लड़ नहीं पाया। , उसूलों पर रहा कायम मैं अपने जीते जी साहिल। मगर मैं ज़िंदगी भर मुफ़्लिसी से लड़ नहीं पाया।। #रमेश ©Ramesh Singh