ज़िन्दगी में किसी का होना, इतना ही ज़रूरी है क्या? लिखूँ ज़ज्बात अपने, ढूँढ़ता ज़माना किसी और को।। मेरा नहीं कोई एक 'ख़ास' ग़र तो दिल धड़केगा नहीं? मैं लिखती हूँ अपना, पढ़ता ज़माना किसी और को।। अरे भई! इश्क़ का मतलब 'एक' हो, ज़रूरी तो नहीं, कहती हूँ मैं अपना, सुनता ज़माना किसी और को।। एहसातात बाँधा नहीं करते, उन्हें तो महसूस करते हैं, मैं जताती अपना, समझता ज़माना किसी और को।। क्या होगी ज़िंदगी ग़र बैठ गये एक-एक को समझाने, करती अपने मन की, देखता ज़माना किसी और को।। रमज़ान 11वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़