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कितनी और लकीरें टूट कर बिखर कर, बर्बाद होने को हैं

कितनी और लकीरें टूट कर
बिखर कर, बर्बाद होने को हैं,
सूखे पत्तों की तरह, झड़ कर
तितर बितर हो जाने को है।

धूप से बचाकर किसी राह के
मुसाफिर को छांव देने तक, 
शाम को दिन ढले, फिर रात
होने को है।

©Senty Poet
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