अपने दिल के जज़्बातों को हर रोज़, लफ़्ज़ों में कुछ इस तरह पिरोता हूँ, जैसे चिड़िया तिनके पिरोती है अपने घोंसले में। शुरू में ये सब कितना मुश्किल होता है फिर भी समय के साथ सब कुछ कितना आसान-सा लगने लगता है। पिछले कुछ दिनों से मेरे दिमाग में विचारों का द्वंद युद्ध चल रहा है, मेरा दिमाग मुझसे कह रहा है गणेश कुछ कर.. लेकिन मैं कुछ करने में असफल क्यों हूँ। शायद दिलोंदिमाग में बेहतर तालमेल नहीं है, शायद दिल को दर्द का अंदाज़ा है शायद दिमाग सही कह रहा है लेकिन कुछ तो करना ही पड़ेगा ऐसे समय में इंसान कुछ चुनिंदा लोगों से मदद की गुहार लगाता है लेकिन क्या वो समझ पाते हैं कि असल समस्या क्या है? कुछ लोग तो....खैर छोड़ो।