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कटती नहीं शब-ए-ग़म, गाह-ए-मरक़द सोया है कोई! वालिद

कटती नहीं शब-ए-ग़म, गाह-ए-मरक़द सोया है कोई!
वालिद ही था बड़ा, फ़िर शख़्श याँ नहीं पाया है कोई।

यादों के सैलाब आकर, आब-ए-नहर दे जाते है अब,
बारिश-ए-चश्म रेग़िस्ताँ को, देख न सुकाया है कोई।

दास्ताँ-ए-मुहब्बत सुनाए क्या?, हर्फ़ थम गए याँ पर,
दौर-ए-वक़्त आया भी क्या?, हरेक रुलाया है कोई!

बा-ख़ुदा इल्तिज़ा है रहम-ओ-करम की, ता-उम्र देके,
झूठे दिखाकर ख़्वाब आने के, उसको सुलाया है कोई।

आलम-ए-मकाँ बे-जाँ हुआ, बस उसके जाने बा'द,
कूचा-ए-गुल उन्सा फ़िर याँ, न देखा खिलाया है कोई।

आलम-ए-दर्द से इस उभर पाएगा कैसे 'विशू' याँ पर,
दीदा-ए-तर देकर उम्र को, लौ चला ठुकराया है कोई!

©विशाल पांढरे
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#Love_U_Papa