कुँअर बेचैन की कलम से प्रस्तुत है- अब आग के लिबास को ज़्यादा न दाबिए, सुलगी हुई कपास को ज़्यादा न दाबिए । ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें, चटके हुए गिलास को ज़्यादा न दाबिए । चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में, पैरों तले की घास को ज़्यादा न दाबिए । मुमकिन है ख़ून आपके दामन पे जा लगे,