वक़्त शायद फिर एक दास्ताँ दोहरा रही हैं तुम्हारे लिखे में न जाने क्यों अमृता नजर आ रही है तुम्हारे अतीत का ना ही मैं साहिर हूँ ना मुसव्विर हूँ,ना लिखने में माहिर हूँ हाँ साहिर है मुर्शिद मेरा,पर इमरोज़ सा ईमान हैं तुम्हें ही चाहूँगा जिंदगी भर,यही मेरी दास्तान हैं ये अमृता सा लिखना तेरा,किसी दास्ताँ की याद दिलाती है जहाँ तीन रूह अधूरे से हैं,उस संगम से मुझे मिलाती है तब की तरह इस बार दास्ताँ में किसी इमरोज़ को ना सजा देना तब कही थी मैं तुमसे फिर मिलूँगी इस बार कब मिलोगी बता देना Inspired by a true love story (Sahir-Amrita-Imroz) A love triangle Plz read below article about this amazing love story Credit-Google In the 1940s, Lahore was in ferment. College students took to the streets with dreams of a free India, while poets, singers, dramatists and other artists provided the narrative to the rebellious spirits.