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फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था सामने बैठा थ

फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था 
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था 

वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार-सू 
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था 

रात भर पिछली सी आहट कान में आती रही 
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था 

मैं तिरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा 
सारी दुनिया में मगर कोई तिरे जैसा न था 

आज मिलने की ख़ुशी में सिर्फ़ मैं जागा नहीं 
तेरी आँखों से भी लगता है कि तू सोया न था 

ये सभी वीरानियाँ उस के जुदा होने से थीं 
आँख धुँदलाई हुई थी शहर धुँदलाया न था 

सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर-ए-लब 
एक पत्थर था ख़मोशी का कि जो हटता न था 

याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था 

मस्लहत ने अजनबी हम को बनाया था 
वर्ना कब इक दूसरे को हम ने पहचाना न था
🌸🥀🌸

©एक अजनबी
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 #आदिम_हाशमी ✍️