दोश है कया लकीरों का,कोसकर बात करते हैं ? मुकद्दर हाथ में अपने, कयों सवालात करते हैं ? हवा को दोश कया देना? है उसका काम बस चलना कया पता थक के बुझ जाए, जो रौशन रात करते हैं। बङी कोशिश रही मेरी, ज़माने के चलूं संग मैं मुख़ौटे डाल न पाए ,ज़मीर जो राख़ करते हैं । नहीं मैं भीड़ का हिस्सा, तमाशा देख लूं खङ के निगाह ख़ुद पे न झुक जाए, कि एहतियात करते हैं। हुई ग़र रात ग़म की तो, उजाला सुख- का भी आए बैठकर सबर की कश्ती में, सफ़र आगाज़ करते हैं। पैर चलना ही न जाने, ख़ता रस्तों की फिर कया है? खङी मंज़िल पुकारे तो, नज़र अंदाज़ करते हैं । अपनी नाकामयाबी का, किसी पे दोश कया मढना नहीं हरजीत वो अपना, जिसपे हम नाज़ करते हैं। ........... #हरजीत कौर पम्मी.......