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कभी मेरे भी दिन थे, हरा -भरा था मैं सरे जमीन तन कर

कभी मेरे भी दिन थे, हरा -भरा था मैं
सरे जमीन तन कर, खड़ा पड़ा था मैं
अपने भी कभी कच्चे-पक्के बच्चे होते थे 
 रस भरे फल, होते 'मीठे- मीठे' अच्छे थे
उम्र ढलने लगा सब कुछ बदलने लगा
कारवां रूकी नहीं, "युग" बदलने लगा
आज बची वजूद है न ताक़ते मकसूद है
ना हूँ हर -भरा लग रही धूप ही धूप है

©अनुषी का पिटारा..
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