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न होती जो समाज की हां,बदल देती फिर ये जहाँ, अंतश्च

न होती जो समाज की हां,बदल देती फिर ये जहाँ,
अंतश्चेतना को दबा न जाने आज खुद खो गई कहाँ?

विक्षिप्त हो गई मेरी चाह, किसी ने भी न ली पूछ है,
पग पग पर ली परीक्षा,किसी की न जवाबदेही यहाँ,

समूल सृष्टि की मैं जगकल्याणी, भेदभाव की मारी हूँ,
क़द्र जो मेरी नही,बिन मेरे किसकी करते हो परवाह?

आँखे खोल देख ,वक्त के साये में न इतना मशगूल हो,
 स्मिता का मान करो,कहिं सृष्टि का बदल जाये न समां।

 यह COLLAB के लिए खुला है।✨💫 

अपने सुसज्जित विचारों व शब्दों के साथ इस पृष्ठभूमि को सजायेंl✒️✒️

• PROFOUND WRITERS द्वारा दी गई  इस चुनौती को पूरा करें। 💎

• अपने दिल की भावनाओं को शब्दों में पिरोकर इस अद्भुत पृष्ठभूमि की सुंदरता बढ़ाएं।
न होती जो समाज की हां,बदल देती फिर ये जहाँ,
अंतश्चेतना को दबा न जाने आज खुद खो गई कहाँ?

विक्षिप्त हो गई मेरी चाह, किसी ने भी न ली पूछ है,
पग पग पर ली परीक्षा,किसी की न जवाबदेही यहाँ,

समूल सृष्टि की मैं जगकल्याणी, भेदभाव की मारी हूँ,
क़द्र जो मेरी नही,बिन मेरे किसकी करते हो परवाह?

आँखे खोल देख ,वक्त के साये में न इतना मशगूल हो,
 स्मिता का मान करो,कहिं सृष्टि का बदल जाये न समां।

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