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बसता है जिसके अन्दर तू वो ढूँढ रहा तुझको दर दर कोई

बसता है जिसके अन्दर तू वो ढूँढ रहा तुझको दर दर
कोई ना ढूंढें तुझे अपने अंदर जब बैठ गया तू घर घर

छल के छलावे में फँसकर चल ना पाए तेरे मार्ग पर अब तक
रथ पैदल ना जाने कैसे कैसे तरीकों से पहुँच रहा है तुझ तक

बजते ढोल नगाड़े नाचते गाते सब जन आते द्वार तेरे
फिर क्यों बाँध लिए हैं इर्द गिर्द द्वेष छल कपट के घेरे

हर नर नारी कुदरत के हर कण में तू दिखता है ‘दिनेश’ को
कैसे बताऊँ इस दुनिया को तुम केवल दिखते हो विशेष को

तेरे करीब होने का सुकून है मुझको पीड़ा भी बहुत सहनी पड़ती है
अलग थलग विचारों को संग लेकर ये रूह इस दुनिया से लड़ती है

©Shivraj Lodha
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