कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए, कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए! यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है, चलों यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए! न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए! ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही, कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए! वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बे-क़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए! तिरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को, ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए! जिएँ तो अपने बग़ैचा में गुल-मुहर के तले, मरें तो ग़ैर की गलियों में गुल-मुहर के लिए! ●दुष्यंत कुमार (1 सितंबर1933-30 दिसंबर 1975) #दुष्यंत कुमार