ना जाने क्यों ज़िम्मेदारियों से भागते हैं लोग, ये जानते हुए भी की कभी उनकी ज़िम्मेदारी; उनके माता - पिता ने भी ली थी, कभी उनकी जरूरतों को पूरा करना; माता पिता की ज़रूरत बन गई थी, कभी उनकी ज़िद्द को अपनी मेहनत से; पूरा करना उनकी आदत हो गई थी, उनके हर ख्वाबों को सीने से लगा; हक़ीक़त में बदलना उनकी फितरत हो गई थी, फिर जब बारी तुम्हारी आई, तो उनके लिए ये भेदभाव क्यों, ये तर्क वितर्क क्यों।। जब हम बचपने में होते हैं तो हम अपनी पसंद नापसंद बिना सोचे समझे बोल देते, कुछ भी मांग लेते है, कुछ भी ख्वाहिशें रखते हैं क्योंकि हमें ये यकीन होता है के हमे ये सब कुछ दिलाने वाले, इन्हे पूरा करने वाले हमारे माता पिता हैं जिन्होंने हमें जन्म दिया है, बड़े नजों से पाला है। बड़े होते होते हमे घर में हालातों और दिक्कतों को देखकर या तो ख्वाहिशों को दबा देते है या ज़िद्द करने लगते हैं मगर हमारे माता पिता फिर भी ये कोशिश अवश्य करते हैं के हमे कोई कमी ना हो। जितना हो सके ये भी ये उनकी कोशिश होती है कि व