कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिये कहाँ चरागाँ मयस्सर नहीं शहर के लिये, यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिये, वो मुतमिन है कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज मैं असर के लिये, ना हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे यहाँ लोग कितने मुनासिब हैं सफर के लिये !! अंकुर बघेल