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रहते हो खामोश फिर भी सब कह जाते हो अपने आँखों से घ

रहते हो खामोश फिर भी सब कह जाते हो
अपने आँखों से घूर कर न जाने क्यों  डराते हो
क्या कोई सामान है नारी कि तुम इधर- उधर 
 पटक सा जाते हो
अपनी मनमर्ज़ी सब थोप सा जाते हो
समझकर पशुओं सा  दिन - रात 
तुम खटवाते हो
निचोड़ने जिस्म को कौवों सा टूट पड़ जाते हो
कैसी है ए मानव! तेरी मानसिकता...
जो नारी को तुम समझ नहीं पाते हो
भीतर बैठे इन्सानियत को क्यों नहीं जगा पाते हो
अरे! जरा तो शर्म करो
कुछ नेक सा तुम कर्म करो
घर में बैठी देवी का कमोबेश सम्मान करो
उनके लाज व स्वाभिमान का थोड़ा सा तो ध्यान धरो
जो तेरी ही खातिर मां बाबा की गलियां छोड़ आई है
न चाहते हुए भी तेरे रंग में रंगने को आई है
सखी सहेली संग वो बचपन पीछे छोड़ आई है
अठरा से बत्तीस की खुद को तेरे लिए बनाई है
बनकर कभी मां तो कभी पत्नी 
तेरी हर गलती पर पर्दा चढ़ाई है
बनकर स्तम्भ हर डगर पर
तेरे लिए खुद को मजबूत बनाई है
बहाकर प्रीत का सागर तुम्हें
पल पल ही सींचा है
बढ़े कुमार्ग पर कदम तेरे
उसे भी तो खींचा है..।।

अंजली श्रीवास्तव
रहते हो खामोश फिर भी सब कह जाते हो
अपने आँखों से घूर कर न जाने क्यों  डराते हो
क्या कोई सामान है नारी कि तुम इधर- उधर 
 पटक सा जाते हो
अपनी मनमर्ज़ी सब थोप सा जाते हो
समझकर पशुओं सा  दिन - रात 
तुम खटवाते हो
निचोड़ने जिस्म को कौवों सा टूट पड़ जाते हो
कैसी है ए मानव! तेरी मानसिकता...
जो नारी को तुम समझ नहीं पाते हो
भीतर बैठे इन्सानियत को क्यों नहीं जगा पाते हो
अरे! जरा तो शर्म करो
कुछ नेक सा तुम कर्म करो
घर में बैठी देवी का कमोबेश सम्मान करो
उनके लाज व स्वाभिमान का थोड़ा सा तो ध्यान धरो
जो तेरी ही खातिर मां बाबा की गलियां छोड़ आई है
न चाहते हुए भी तेरे रंग में रंगने को आई है
सखी सहेली संग वो बचपन पीछे छोड़ आई है
अठरा से बत्तीस की खुद को तेरे लिए बनाई है
बनकर कभी मां तो कभी पत्नी 
तेरी हर गलती पर पर्दा चढ़ाई है
बनकर स्तम्भ हर डगर पर
तेरे लिए खुद को मजबूत बनाई है
बहाकर प्रीत का सागर तुम्हें
पल पल ही सींचा है
बढ़े कुमार्ग पर कदम तेरे
उसे भी तो खींचा है..।।

अंजली श्रीवास्तव