"दहर" ••••••• इस दहर की भागदौड़ में काफ़ी पीछे रह जाती हूँ, खुद को इस मजमे से कुछ अलग थलग मैं पाती हूँ। भरी सभा में कभी मखौल की पात्र बन जाती हूँ, जब समाज की बुराइयों में मैं शामिल न हो पाती हूँ। सुनसान पगडंडी पर भी मैं जाने से हमेशा कतराती हूँ, हो न जाए कहीं रूह शर्मसार ये बात जेहन में लाती हूँ। मैं डरी सहमी सी घर की चारदीवारी में बस जाती हूँ, जब अपने निर्मल दामन को मैला होने से बचाती हूँ। एक लड़की हूँ क्या इसीलिए इतने ज़्यादा कष्ट उठाती हूँ, जन्म से लेकर मृत्यु तक बस कसौटी पर तौली जाती हूँ। ख़ुद की मर्ज़ी न होने पर भी दहर के रिवाज़ अपनाती हूँ, शायद इब्तिला है कि लड़की के रूप में जन्म मैं पाती हूँ। "दहर" °°°°°° इस दहर की भागदौड़ में काफ़ी पीछे रह जाती हूँ, खुद को इस मजमे से कुछ अलग थलग मैं पाती हूँ। भरी सभा में कभी मखौल की पात्र बन जाती हूँ, जब समाज की बुराइयों में मैं शामिल न हो पाती हूँ। सुनसान पगडंडी पर भी मैं जाने से हमेशा कतराती हूँ,