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कविता -खड़ा हूँ मकान की तरह मैंने मकान खुद खड़े होक

कविता -खड़ा हूँ मकान की तरह

मैंने मकान खुद खड़े होकर बनवाया
ताकि देख सकूँ
धीरे धीरे खड़े होना कैसा होता है

यूँ कईं पौधों को सामने बडे होते देखा है
पर मकान पौधा नहीं होता
उसे बड़े होते नहीं
खड़े होते देखना होता है

देखना होता है
इंच इंच नाप से
कहीं कुछ छूट ना जाए
ये ज़मीन है, जिंदगी नहीं

नींव की गहराई में उतरते पत्थरों से समझा
ऊंचाई पाने के लिए
कितना नीचे उतरना पड़ता है
यह उतरना कपड़े सा उतरना नहीं है
किसी परिन्दे का आसमान से उतरने सरीखा पावन है 

चारों ओर उठती दीवारें देखकर 
अपने कद का अनुमान होने लगा
जिस रोज उन पर रखी गई छत 
उसी दिन से आसमान  छोटा गया
जैसे छोटे हो जाते हैं हम
बड़ा मकान बनाने के गुरुर में

दरवाजे पर टंगी नेम प्लेट
चीख चीख कर कह रही है
जमीन का ये टुकड़ा अब आजाद नहीं है

धरती के उसी टुकड़े पर
मैं खड़ा हूँ
मकान की ही तरह


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कविता -खड़ा हूँ मकान की तरह

मैंने मकान खुद खड़े होकर बनवाया
ताकि देख सकूँ
धीरे धीरे खड़े होना कैसा होता है

यूँ कईं पौधों को सामने बडे होते देखा है
पर मकान पौधा नहीं होता
उसे बड़े होते नहीं
खड़े होते देखना होता है

देखना होता है
इंच इंच नाप से
कहीं कुछ छूट ना जाए
ये ज़मीन है, जिंदगी नहीं

नींव की गहराई में उतरते पत्थरों से समझा
ऊंचाई पाने के लिए
कितना नीचे उतरना पड़ता है
यह उतरना कपड़े सा उतरना नहीं है
किसी परिन्दे का आसमान से उतरने सरीखा पावन है 

चारों ओर उठती दीवारें देखकर 
अपने कद का अनुमान होने लगा
जिस रोज उन पर रखी गई छत 
उसी दिन से आसमान  छोटा गया
जैसे छोटे हो जाते हैं हम
बड़ा मकान बनाने के गुरुर में

दरवाजे पर टंगी नेम प्लेट
चीख चीख कर कह रही है
जमीन का ये टुकड़ा अब आजाद नहीं है

धरती के उसी टुकड़े पर
मैं खड़ा हूँ
मकान की ही तरह


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