कभी मिसरा-ए-ऊला में कभी मिसरा-ए-सानी में। तुम्हारी बस गयी सूरत हमारी ज़िंदगानी में।। , हमें उम्मीद है इक दिन हमारा वक़्त बदलेगा। अभी इक मोड़ आयेगा हमारी इस कहानी में।। , तमाचा हिज्र ने मारा जगाया नींद से हमको। कहा लिखना ग़ज़ल ऐसी सुनाना जो रवानी में। , हमें इमकान था चादर ओढ़ाकर अब्र की सबको। उतरता है यही से चाँद शायद रोज पानी में।। , बनाकर जिस्म को मिट्टी लहू से फिर उसे सींचा। ग़ज़ल का फिर उगा पौधा दिखा जो बाग़-बानी में।। , बुलाकर ले गई हमको किसी की याद मीलों तक। मिला कोई नहीं हमको मगर उस राजधानी में।। , हमें क्या इल्म है साहिल मगर इतना तो देखा है। कई बरगद उखड़ते है मोहब्बत के ही आँधी में। #रमेश मिसरा-ए-ऊला-शेर की पहली पंक्ति। मिसरा-ए-सानी-शेर की दूसरी पंक्ति। इम्कान-शक्यता अब्र-बादल इल्म-जानकारी