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मुख्तलिफ बातें भीतर ही भीतर मैं दबाता रहा, हर चोट

मुख्तलिफ बातें भीतर ही भीतर मैं दबाता रहा,
हर चोट पर न जाने क्यों मुस्कुराता रहा।
खड़ी धूप में भी जलकर बताये न जाने कितने मुसाफिरों
को रास्ते,
इक रोज़ क्या भूला अपने घर का रास्ता, हर शख्स मुझे नया रास्ता बताता रहा।
दस्तूर जब आया समझ ज़माने का इन आखिरी लम्हों में यारों,
वरना तो ताउम्र अपनी आदतों से ही मैं हारता  रहा।
                      @_ankaha_
                   @shikhar

©shikhar Singh
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