|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 8
।।श्री हरिः।।
2 – ग्रह-शान्ति
'मनुष्य अपने कर्म का फल तो भोगेगा ही। हम केवल निमित्त हैं उसके कर्म-भोग के और उसमें हमारे लिये खिन्न होने की कोई बात नहीं है।' आकाश में नहीं, देवलोक में ग्रहों के अधिदेवता एकत्र हुए थे। आकाश में केवल आठ ग्रह एकत्र हो सकते हैं। राहु और केतु एक शरीर के ही दो भाग हैं और दोनों अमर हैं। वे एकत्र होकर पुन: एक न हो जायें, इसलिये सृष्टिकर्ता ने उन्हें समानान्तर स्थापित करके समान गति दे दी है। आधिदैवत जगत में भी ग्रह आठ ही एकत्र होते हैं। सिररहित कबन्ध केतु की वाणी अपने मुख राहु से ही व्यक्त होती है।
'मनुष्य प्रमत्त हो गया है इन दिनों। अत: उसे अपने अपकर्मों का फल भोगना चाहिये।' शनिदेव कुपित हैं, भूतलपर मनु की संतति जब उनके पिता भगवान् भास्कर की उपेक्षा करने लगती है, मनुष्य जब संध्या तथा सूयोंपस्थान से विमुख होकर नारायण से परांगमुख होता है, शनि कुपित होते हैं। यह उनका स्वभाव है। सूर्य भगवान के अतिरिक्त वे केवल देवगुरु का ही किञ्चित् संकोच करते हैं।