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खिलते गुलाब सी शायर के ख़्वाब सी खुली हुई पर फिर भ

खिलते गुलाब सी शायर के ख़्वाब सी
खुली हुई पर फिर भी एक बंद किताब सी
जिसके दिल में राज़ तो कम हैं पर कहने को बात अनंत हैं
मोहब्बतों के ख़्वाब समेटी तुम लगती हो प्यार की बेटी
जीवाः पे रखी है मिश्री की डली
बंद हो जैसे सुबह होते ही खिलने वाली कली 
शाम होते ही सिमट जाती हो
मन की कुछ अनकही बातें रख सो जाती हो
पर दुनियां को खिला जाती हो
प्यारे से रंग सजा जाती हो

©Dr  Supreet Singh
  #गुलाब_बोलूं_यां_शायर_का_ख़्वाब