|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11
।।श्री हरिः।।
9 - भोले भगवान
हरीश आज इस ज्येष्ठ की दोपहरी में बहुत भटका, बहुत से दफ्तरों के द्वार खटखटाये उसने, अनेक समाचार-पत्रों और दूसरे कार्यालयों में पहुँचा; कितने दिनों से चल रहा है यह क्रम; कौन गिनने बैठा है इसे। विश्वविद्यालय से एम० ए० करके अपने साथ अनेक प्रशंसा पत्र लिये भटक रहा है हरीश। 'काम नहीं है।' उसके लिए! एक एम० ए० के लिए क्या विश्व में कहीं काम नहीं है? वह अकेला है, घर पर और कोई नहीं; घर ही नहीं उसके तो; पर पेट है न! अकेले को भी तो भूख लगा करती है। दो-तीन दिन पहले एक कबाड़ी के हाथ वह अपना फाउन्टेन पैन मिट्टी के मोल बेच चुका और अब तो आज मुट्ठी भर चने लेने में ही उसकी अन्तिम पूंजी भी समाप्त हो गयी। 'काम नहीं' लगभग सात-आठ महीने हो चुके, उसकी सभी प्रार्थनाओं का जो उसने इधर-उधर भेजी, एक ही उत्तर। वह जहां जाता है, उसे द्वारपर दिखा दिया जाता है - 'काम नहीं।' इतने बड़े संसार में उसके लिए कहीं काम नहीं और अब कल के लिए कौड़ी भी पास नहीं है। 'काम नहीं'। इस ग्रीष्म में, इस तवे से तपते पथ पर वह भटकता रहा और अब उसे लगता है कि सचमुच संसार में उसका अब कोई काम नहीं है।
रूखे बिखरे बाल, तमतमाया फीका मुख, पसीने से लथपथ देह और भालपर चिपकी कुछ अलकें - शरीर कहाँ तक साथ दे किसी का। अब चक्कर आने लगा। पार्क दुर है और कुछ देर विश्राम चाहिये। इधर-उधर देखकर मन्दिर में घुस गया हरीश। शीतल छाया, सुगन्धित वायु, जैसे प्राणों को अद्भुत तृप्ति मिली हो, जगमोहन के सम्मुख धम से एक खम्भे के पास बैठ गया। मन्दिर की चिकनी शीतल संगमर्मर की भूमि बड़ी सुखद लगी; वह खम्भे के सहारे हो गया।