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मोहल्ले वाला प्यार......उफ्फ! पूरे मोहल्ले में था

मोहल्ले वाला प्यार......उफ्फ!

पूरे मोहल्ले में था ये शोर की की तुम मेरी हो और मैं तुम्हारा, तीज़- त्यौहारों, संक्रांति के दिन वो आसमान में पतंगों के और इधर हमारी आंखों के पैंचो का लड़ना और इन सब के साथ, गलियों में जमघट लगाए, खुसफुसाहट करती हुई वे औरते, वैसे तो घर में मुझे निहायत ही आलसी समझा जाता था। पर तुम्हारा मोहल्ले में आने के बाद, मां जब भी दुकान से कुछ मंगाती थी तो मैं ही हर बार सामान लेने के लिए सबसे पहले फ़रार हो लिया करता था, अब मेरे घर का हर एक प्राणी अचंभे में था कि,ये आलसी कब से इतना मेहनती हो गया...दुकान के चार चक्कर लगाने के पीछे तुम थी, की अगर इस बारी तुम्हारा एक भी दीदार हो जाए तो मानो दिन सा बन जाएगा। और तुम्हारा भी यूं कभी गीले कपड़ों को रस्सी पर डाल सुखाना, कभी सर पर चुन्नी औढ़ कर धूप से बचते हुए, आलू के पापड़ को धूप दिखाना, तो कभी छत पर बने उस छोटे से मंदिर में धूप जलाना, इन सब के दौरान छुपते-छुपाते हुए लबो पे मंद-मंद मुस्कुराहट लाते हुए तुम्हारा मुझे और मेरा तुम्हे देखने की इस लुक्का छि्पपी में तुम्हारी मां का अचानक से तुम्हे आवाज़ देकर बुलाना और सर पर चुन्नी डालकर अंतर्मन में मुस्कुराहट और बाहरी चेहरे पर डर लिए हुए तुम्हारा यूं भाग जाना...उफ्फ! रह रहकर याद आता है मुझे, चारो ओर मोहल्ले में था ये शोर की की तुम मेरी हो और मैं यहां तक जानते थे तुम्हारी वो सहेलियां, मेरे दोस्त, तुम्हारी घर की वो बिल्ली, वो गली के आवारा कुत्ते, जो अक्सर मुझ पर बस भौंका करते थे हां, काटते नहीं थे। तुम्हारे घर की खिड़कियों की वो जालिया, दरवाजे़,  छज्जे की वो ग्रिल, वो गहरी रात की शांत चुप्पी, वो दिन का कनो में चुभता वो शौर...!
पर अब ये जो तुमने मुझे अब देखना भी बंद कर दिया है,क्या मेरी सूरत बद्दतर हो गई है या तुम्हारी नज़रें कमजो़र।

 और हां...अब तीज़ त्योहारों पर पतंगे तो उड़ती हैं पैंचे भी लड़ते हैं, पर कब कट जाते हैं!

~हेमंत राय। #MeraShehar 
मोहल्ले वाला प्यार......उफ्फ!

पूरे मोहल्ले में था ये शोर की की तुम मेरी हो और मैं तुम्हारा, तीज़- त्यौहारों, संक्रांति के दिन वो आसमान में पतंगों के और इधर हमारी आंखों के पैंचो का लड़ना और इन सब के साथ, गलियों में जमघट लगाए, खुसफुसाहट करती हुई वे औरते, वैसे तो घर में मुझे निहायत ही आलसी समझा जाता था। पर तुम्हारा मोहल्ले में आने के बाद, मां जब भी दुकान से कुछ मंगाती थी तो मैं ही हर बार सामान लेने के लिए सबसे पहले फ़रार हो लिया करता था, अब मेरे घर का हर एक प्राणी अचंभे में था कि,ये आ
मोहल्ले वाला प्यार......उफ्फ!

पूरे मोहल्ले में था ये शोर की की तुम मेरी हो और मैं तुम्हारा, तीज़- त्यौहारों, संक्रांति के दिन वो आसमान में पतंगों के और इधर हमारी आंखों के पैंचो का लड़ना और इन सब के साथ, गलियों में जमघट लगाए, खुसफुसाहट करती हुई वे औरते, वैसे तो घर में मुझे निहायत ही आलसी समझा जाता था। पर तुम्हारा मोहल्ले में आने के बाद, मां जब भी दुकान से कुछ मंगाती थी तो मैं ही हर बार सामान लेने के लिए सबसे पहले फ़रार हो लिया करता था, अब मेरे घर का हर एक प्राणी अचंभे में था कि,ये आलसी कब से इतना मेहनती हो गया...दुकान के चार चक्कर लगाने के पीछे तुम थी, की अगर इस बारी तुम्हारा एक भी दीदार हो जाए तो मानो दिन सा बन जाएगा। और तुम्हारा भी यूं कभी गीले कपड़ों को रस्सी पर डाल सुखाना, कभी सर पर चुन्नी औढ़ कर धूप से बचते हुए, आलू के पापड़ को धूप दिखाना, तो कभी छत पर बने उस छोटे से मंदिर में धूप जलाना, इन सब के दौरान छुपते-छुपाते हुए लबो पे मंद-मंद मुस्कुराहट लाते हुए तुम्हारा मुझे और मेरा तुम्हे देखने की इस लुक्का छि्पपी में तुम्हारी मां का अचानक से तुम्हे आवाज़ देकर बुलाना और सर पर चुन्नी डालकर अंतर्मन में मुस्कुराहट और बाहरी चेहरे पर डर लिए हुए तुम्हारा यूं भाग जाना...उफ्फ! रह रहकर याद आता है मुझे, चारो ओर मोहल्ले में था ये शोर की की तुम मेरी हो और मैं यहां तक जानते थे तुम्हारी वो सहेलियां, मेरे दोस्त, तुम्हारी घर की वो बिल्ली, वो गली के आवारा कुत्ते, जो अक्सर मुझ पर बस भौंका करते थे हां, काटते नहीं थे। तुम्हारे घर की खिड़कियों की वो जालिया, दरवाजे़,  छज्जे की वो ग्रिल, वो गहरी रात की शांत चुप्पी, वो दिन का कनो में चुभता वो शौर...!
पर अब ये जो तुमने मुझे अब देखना भी बंद कर दिया है,क्या मेरी सूरत बद्दतर हो गई है या तुम्हारी नज़रें कमजो़र।

 और हां...अब तीज़ त्योहारों पर पतंगे तो उड़ती हैं पैंचे भी लड़ते हैं, पर कब कट जाते हैं!

~हेमंत राय। #MeraShehar 
मोहल्ले वाला प्यार......उफ्फ!

पूरे मोहल्ले में था ये शोर की की तुम मेरी हो और मैं तुम्हारा, तीज़- त्यौहारों, संक्रांति के दिन वो आसमान में पतंगों के और इधर हमारी आंखों के पैंचो का लड़ना और इन सब के साथ, गलियों में जमघट लगाए, खुसफुसाहट करती हुई वे औरते, वैसे तो घर में मुझे निहायत ही आलसी समझा जाता था। पर तुम्हारा मोहल्ले में आने के बाद, मां जब भी दुकान से कुछ मंगाती थी तो मैं ही हर बार सामान लेने के लिए सबसे पहले फ़रार हो लिया करता था, अब मेरे घर का हर एक प्राणी अचंभे में था कि,ये आ
hemantrai5331

Hemant Rai

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