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गीता स्पष्ट कह रही है कि जो जन्म लेता है, वह मरता

गीता स्पष्ट कह रही है कि
जो जन्म लेता है, वह मरता है।
आपके सम्बन्धों का भी
प्रकृति में कोई अर्थ नहीं है। 
अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं कि
तू चाहे इनको मार या नहीं मार,
मैं इनको पहले ही मरा हुआ देख रहा हूं।
अत: मृत्यु का शोक करना उचित नहीं है।
तू क्षत्रिय है,युद्ध करना तेरा धर्म है। गीता ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक इकाई रूप में वर्णन किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पुरुष है, शेष प्रकृति है। सत-रज-तम तथा वर्णाश्रम में सम्पूर्ण प्रकृति बंटी हुई है। पुरुष वीर्य रूप वर्ण-अहंकृति है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है-आकृति है। अन्न-कर्म, यज्ञ, दान, तप सभी तो त्रिगुणात्मक है। अर्थात्-हम प्रकृति के बाहर जी ही नहीं सकते। जन्म, कर्म, मृत्यु सब प्रकृति दत्त हैं।

वर्णाश्रम की ऐसी प्राकृतिक विवेचना भी अन्यत्र नहीं मिलती। देव-मनुष्य-पशु-पक्षी-वनस्पति और यहां तक कि असंज्ञ सृष्टि भी चारों वर्णों के बाहर नहीं है। यही 84 लाख योनिया हैं, जिनमें जीवात्मा भ्रमण करता है।

वर्णाश्रम की विचित्रता देखिए-तीन वर्ण द्विज हो सकते हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य किन्तु इन वर्णों की स्त्रियां, वैश्य और शूद्र तीनों को कृष्ण समकक्ष कह रहे हैं। (गीता-9/32)। इसकी वैज्ञानिकता पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए।

सृष्टि के तीनों धरातल-आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक-भी प्रकृति और वर्ण व्यवस्था में समाहित हैं। अज्ञान का कारण प्रकृति है। ‘नाहं प्रकाश: सर्वस्य…’ इस सूत्र को हम कृष्ण का अंश बनकर सोचें तो गीता का लक्ष्य स्पष्ट है। प्रत्येक प्राणी कृष्ण है, प्रकृति से ढका है। आत्मा कर्ता नहीं है, प्रकृति के कारण कर्ता भाव की अनुभूति मात्र है। अत: शिक्षा को पुरुष-प्रकृति, चेतना-शरीर को केन्द्र में रखकर नया रूप दिया जाए। इसके लिए शिक्षा नीति-नियंत्रण शिक्षाविदों के हाथों में ही दिया जाना चाहिए। गीता के तीसरे अध्याय (14-15) में लिखा है-‘प्राणी अन्न से पैदा होते हैं। अन्न वृष्टि से, वृष्टि यज्ञ से, यज्ञ कर्म से, कर्म वेद से और वेद परमात्मा से पैदा होते हैं।’
गीता स्पष्ट कह रही है कि
जो जन्म लेता है, वह मरता है।
आपके सम्बन्धों का भी
प्रकृति में कोई अर्थ नहीं है। 
अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं कि
तू चाहे इनको मार या नहीं मार,
मैं इनको पहले ही मरा हुआ देख रहा हूं।
अत: मृत्यु का शोक करना उचित नहीं है।
तू क्षत्रिय है,युद्ध करना तेरा धर्म है। गीता ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक इकाई रूप में वर्णन किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पुरुष है, शेष प्रकृति है। सत-रज-तम तथा वर्णाश्रम में सम्पूर्ण प्रकृति बंटी हुई है। पुरुष वीर्य रूप वर्ण-अहंकृति है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है-आकृति है। अन्न-कर्म, यज्ञ, दान, तप सभी तो त्रिगुणात्मक है। अर्थात्-हम प्रकृति के बाहर जी ही नहीं सकते। जन्म, कर्म, मृत्यु सब प्रकृति दत्त हैं।

वर्णाश्रम की ऐसी प्राकृतिक विवेचना भी अन्यत्र नहीं मिलती। देव-मनुष्य-पशु-पक्षी-वनस्पति और यहां तक कि असंज्ञ सृष्टि भी चारों वर्णों के बाहर नहीं है। यही 84 लाख योनिया हैं, जिनमें जीवात्मा भ्रमण करता है।

वर्णाश्रम की विचित्रता देखिए-तीन वर्ण द्विज हो सकते हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य किन्तु इन वर्णों की स्त्रियां, वैश्य और शूद्र तीनों को कृष्ण समकक्ष कह रहे हैं। (गीता-9/32)। इसकी वैज्ञानिकता पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए।

सृष्टि के तीनों धरातल-आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक-भी प्रकृति और वर्ण व्यवस्था में समाहित हैं। अज्ञान का कारण प्रकृति है। ‘नाहं प्रकाश: सर्वस्य…’ इस सूत्र को हम कृष्ण का अंश बनकर सोचें तो गीता का लक्ष्य स्पष्ट है। प्रत्येक प्राणी कृष्ण है, प्रकृति से ढका है। आत्मा कर्ता नहीं है, प्रकृति के कारण कर्ता भाव की अनुभूति मात्र है। अत: शिक्षा को पुरुष-प्रकृति, चेतना-शरीर को केन्द्र में रखकर नया रूप दिया जाए। इसके लिए शिक्षा नीति-नियंत्रण शिक्षाविदों के हाथों में ही दिया जाना चाहिए। गीता के तीसरे अध्याय (14-15) में लिखा है-‘प्राणी अन्न से पैदा होते हैं। अन्न वृष्टि से, वृष्टि यज्ञ से, यज्ञ कर्म से, कर्म वेद से और वेद परमात्मा से पैदा होते हैं।’