सनम ला-ईलाज़ ग़र ये मर्ज़ है फ़िर इसे सह लेने में क्या हर्ज़ है ! दुआओं में कभी पूछ लेना ख़ुदा से बक़ाया ये किस जनम का क़र्ज़ है ! इंसाँ ही अब रक़ीब-ए-इंसानियत है गुनाह-ए-अज़ीम भी क्या फ़र्ज़ है ! भाग सकता है कौन तक़दीर से नाम सभी का क़ाग़ज़ पे दर्ज़ है ! जो रो ना सके मलय ग़ैरों के वास्ते वो नज़रे-ए-ख़ुदा बड़ा ख़ुदग़र्ज़ है ! ©malay_28 #मर्ज़