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कुछ इधर उधर पड़ी गजलों को जो समेटने लगा समेटने क्य

कुछ इधर उधर पड़ी गजलों को जो समेटने लगा
समेटने क्या लगा उसकी यादों को बिखेरने लगा

कुछ पन्ने उड़कर उस आइने की ओर जा रहे थे,
वो आइना मुझे मेरी परछाई दिखाने लगा,

हो तो जाते आशिक़ हम भी उसके शहर के मगर,
हमारे आते ही वो शहर शर्म से पानी में डूब गया,

बेवफ़ाई तो रगो में थी बस हम ही ना पहचान पाए,
वो तो पिंजरा था उसके खुलते ही मैं भी उड़ने लगा,

'कार्तिक' क्या आज भी याद करता है उसकी बाहों को,
भूल गया, उसने बाहें खोली और तू जमीन पे गिरने लगा, #RDV19
#gazal
कुछ इधर उधर पड़ी गजलों को जो समेटने लगा
समेटने क्या लगा उसकी यादों को बिखेरने लगा

कुछ पन्ने उड़कर उस आइने की ओर जा रहे थे,
वो आइना मुझे मेरी परछाई दिखाने लगा,

हो तो जाते आशिक़ हम भी उसके शहर के मगर,
हमारे आते ही वो शहर शर्म से पानी में डूब गया,

बेवफ़ाई तो रगो में थी बस हम ही ना पहचान पाए,
वो तो पिंजरा था उसके खुलते ही मैं भी उड़ने लगा,

'कार्तिक' क्या आज भी याद करता है उसकी बाहों को,
भूल गया, उसने बाहें खोली और तू जमीन पे गिरने लगा, #RDV19
#gazal
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