ग़ज़ल लगते हो कभी रदीफ़ कभी क़ाफ़िया लगते हो साथी हूँ मैं तुम्हारा मेरे तुम साथिया लगते हो मुक़द्दस है रिश्ता मेरा तुझसे, ज़माना समझेगा नहीं कभी तुम हो ख़ाक-नशीं कभी औलिया लगते हो हसरत हो मेरी तुम, एक तेरे सिवा कुछ नहीं चाहिए कभी तुम हमनवां हो कभी तुम छलिया लगते हो शरारत करते हो, उलझाते हो अपनी बातों में ऐसे शहर-ए-दिल की जैसे तुम तंग गलियां लगते हो मुझ को बस ख़्वाहिश है तेरी ही इस जहाँ में ज़िन्दगी के सुहाने 'सफ़र' में तुम बेलिया लगते हो ख़ाक-नशीं- फ़कीर औलिया- संत ♥️ Challenge-633 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें :) ♥️ विषय को अपने शब्दों से सजाइए।