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#गीत  मैं नदिया की धारा चंचल, तुम पर्वत जैसे दृढ

#गीत 


मैं नदिया की धारा चंचल, तुम पर्वत जैसे दृढ़ हो । 


चलते - चलते अगर राह में थक कर जब रुक जाती हूं ।

वक्ष तुम्हारे सर रख अपना राहत थोड़ी पाती हूं ।

और सदा मैं चाहूँ तुमसे कभी न ऋण ये उऋण हो ।

मैं नदिया की धारा चंचल............


सौ सौ चोटें मिली राह में चलते - चलते अक्सर ही ।

प्रेम पियासी एक नदी हूं, पी बैठी सब हंसकर ही ।

व्यवधानों में शामिल कंकड़ पत्थर, रोड़ा या कण हो ।

मैं नदिया की धारा चंचल............


पीड़ाओं पर मरहम मलकर ज़ख्म मेरे सहलाते हो ।

आलिंगन में भरकर अपने नेह सतत बरसाते हो ।

व्याकुल अनहद हो जाते क्यों, अगर चेतना से जड़ हो । 

मैं नदिया की धारा चंचल........

©Gunjan Agarwal
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