क्या, यूँ ही होता श्रृंगार रहेगा।।। कर्मों से नहीं, बस शब्दों से ही होता इनका श्रृंगार रहेगा। सरेआम या बीच सड़क क्या होता इनका चीत्कार रहेगा। क्या पूछूं मैं जाकर उनसे, शब्दों में जिनको बांध रखा। आज़ादी का भ्रम देकर, नज़रों से जिनको साध रहा। क्या पूछूं मैं बहनों से, मां बेटी और निज जाया से। संस्कार रहे मेरे कैसे, स्नेह किया बस काया से। क्या कह दूं मैं जा उनसे, सच बोलूं या झूठ कहुँ। क्यूँ मानव हूँ कहता मन को, बिन परिवार ही ठूंठ रहूँ। तुम बोलो कब तक मन मे हमारे बैठा ऐसा विकार रहेगा। सरेआम या बीच सड़क क्या होता इनका चीत्कार रहेगा। बहना ने राखी बांधी थी, बेटी कंधे पे झूली है। फिर उनकी किस्मत में क्यूँ, अत्याचार और सूली है। किस हक मां को मां कह दूं, नज़रें भी कैसे चार करूँ। जिस गोद मे बचपन खेला था, उसपे भी मैं वार करूँ। ब्याहा, जिसको दुल्हन माना, उसका मान भी बेच रहा। कृष्ण बना बैठा हूँ लेकिन, वस्त्र उसका ही खेंच रहा। कब तक मान का गहना बोलो होता यूं ही शिकार रहेगा। सरेआम या बीच सड़क क्या होता इनका चीत्कार रहेगा। तुम अपने हक को लड़ते हो, उनका भी तो कुछ हक होगा। कल की बातें छूटीं पीछे, अब इनका समर सम्यक होगा। जिस गोद मे खेला, पला बढ़ा, कुछ तो कर्ज़ उस गोद का होगा। कब तक ममता बरसाएगी, कुछ तो असर अब क्रोध का होगा। उसकी ख़ातिर भी मूक रहोगे, जिसने लहु से तुमको सींचा है। क्या हाथ सुरक्षित रह पाएगा, जिसने दुपट्टा उसका खींचा है। आज रहे तुम मौन खड़े, क्या कल को ये परिवार रहेगा। सरेआम या बीच सड़क क्या होता इनका चीत्कार रहेगा। ©रजनीश "स्वछंद" क्या, यूँ ही होता श्रृंगार रहेगा।।। कर्मों से नहीं, बस शब्दों से ही होता इनका श्रृंगार रहेगा। सरेआम या बीच सड़क क्या होता इनका चीत्कार रहेगा। क्या पूछूं मैं जाकर उनसे, शब्दों में जिनको बांध रखा। आज़ादी का भ्रम देकर,